रविवार, 3 अगस्त 2025

काव्यपुरुषक कथा - कवि रहस्यक अंश

साहित्यक विषयमे एकटा रोचक आ शिक्षाप्रद कथा अछि। पुत्रक कामनासँ सरस्वती जी हिमालय मे तपस्या करैत छलीह। ब्रम्हाजीक वरदानसँ हुनका एकटा पुत्र भेलन्हि - जिनकर नाम 'काव्यपुरुष' भेलनि। (अर्थात् पुरुष रूप मे काव्य) । जनमितहिं ओ पुत्र इ श्लोक पढ़ैत माताकेँ प्रणाम केलन्हि --

यदेतद्वाङ्गमयं विश्वमथ मूर्त्या विवर्तते ।
सोsस्मि काव्यपुमानम्ब पादौ वन्देय तावकौ ।।
अर्थात् -- 'जे वाङ्ग्मयविश्व (शव्दरूपी संसार) मूर्तिधारण क' क' निवर्तमान भ' रहल अछि सैह काव्यपुरुष हम छी। हे माय ! आहाँक चरणकेँ प्रणाम करैत छी'। एहि पद्यके सुनि क' सरस्वती माय प्रसन्न भेलीह आ कहलन्हि -- 'वत्स',एखन धरि विद्वान गद्य टा बजैत अयलाह आइ आहाँ पद्यक उच्चारण केलहुँ। आहाँ बड्ड प्रसंसनीय छी। एखन सँ शव्द - अर्थ - मय आहाँक शरीर अछि -- संस्कृत आहाँक मुँह -- प्राकृत बाँहि -- अपभ्रंश जाँघ --- पैशाचभाषा पैर -- मिश्रभाषा -- वक्षः स्थल -- आत्मा छन्द -- लोम -- प्रश्नोत्तर, पहेली इत्यादि आहाँक खेल -- अनुप्रास उपमा इत्यादि आहाँक गहना भेल'। श्रुति सेहओ एहि मन्त्र मे आहाँक प्रशंसा केलनि --
चत्वारि श्रृंगास्त्रयोsस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्तासोsस्य ।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवो मत्याँ आविवेश ।।
ऋग्वेद 3।8।10।3।
एहि वैदिक मन्त्रके कतेको अर्थ कएल गेल अछि। (1) कुमारिलकृत तंत्रवार्तिक (1। 2। 46) क मोताबिक इ सूर्यक स्तुति अछि। चारि 'श्रृंग' दिनक चारि भाग अछि। तीन 'पाद' तीनटा ऋतु -- शीत, ग्रीष्म, वर्षा। दू 'शीर्ष' दुनू छह छह मासक अयन। सात 'हाथ' सूर्यक सातटा घोड़ा। 'त्रिधाबद्ध' प्रातः मध्यान्ह - साँझ - सवन (तीनू समय सँ सोमरस खींचल जाइत अछि) । 'वृषभ' वृष्टिक मूल कारण प्रवर्तक। 'रोरवीति', मेघक गर्जन। 'महो देव' बड़का देवता -- सूर्य जिनका सबलोक प्रत्यक्ष देवताक रूपमे देखैत छथि। (2) सायणाचार्य एहि तरहेँ अर्थ व्यक्त कएने छथि -- एहिमे यज्ञ रूप अग्निक वर्णन अछि। चारि 'श्रृंग' अछि चारु वेद। तीनटा 'पाद' तीनू सवन प्रातः मध्यान्ह साँझ। दू टा 'शीर्ष' ब्रह्मौदन आ प्रवर्ग्य। सातटा 'हाथ' सातो छन्द। 'त्रिधाबद्ध' मन्त्र - कल्प - ब्राह्मण तीन तरहसँ जकर निबन्धन भेल होएक। 'वृषभ' कर्मफल सभक वर्षण केनिहार। 'रोरवीति' यज्ञानुष्ठानक समयमे मन्त्रादिकपाठ आ सामगानादिक शव्द क' रहल अछि। (3) सायणाचार्य सेहओ एकरा सूर्यकपक्षमे एहि तरहेँ लगौने छथि -- चारिटा 'श्रृंग' अछि चारु दिशा। तीनटा 'पाद' भेल तीनू वेद। दू - टा 'शीर्ष' राति आ दिन। सातटा 'हाथ' सात ऋतु - वसन्तादि छहटा पृथक् - पृथक् आ एकटा सातम 'साधारण'। 'त्रिधाबद्ध' पृथिवी आदिक स्थानमे अग्नि आदिक रूपसँ स्थित - अथवा ग्रीष्म - वर्षा - शीत तीन कालमे बद्ध। 'वृषभ' वृष्टि केनिहार। 'रोरवीति' वर्षाक माध्यमे शव्द करैत अछि। 'महो देव' पैघ देवता। 'मर्त्यान् आविवेश' नियन्ता आत्माक रूपमे समस्त जीवमे प्रवेश केलक। (4) शाव्दिकक मतसँ एहि मन्त्रमे शव्द रूप ब्रम्हक वर्णन अछि -- जकरा विशद रूपमे पतञ्जलि महाभाष्य ( पस्पशाह्रिक पृ० 12 ) मे बतौने छथि। चारि 'श्रृंग' अछि चारु तरहक शव्द - नाम-आख्यात- उपसर्ग -निपात (उद्योतक मतानुसार परा - पश्यन्ति - मध्यमा - वैखरी) । तीन 'पाद' तीनू काल, भूत भविष्यत् वर्तमान। दू टा 'शीर्ष' दू तरहक शव्द -- नित्य - अनित्य अर्थात् व्यंग्य व्यंजक (प्रदीप) । 'सात' हाथ, साथटा विभक्ति। 'त्रिधा बद्ध' ह्रदय - कण्ठ - मूर्धा इ तीनू स्थानमे बद्ध। 'वृषभ' वर्षण केनिहार। 'रोरवीति' शव्द करैत अछि। 'महो देवः' पैघ देव, शव्द ब्रम्ह। मर्त्यान् 'आविवेश' मनुक्ख मे प्रवेश केलक। (5) भरत नाट्यशास्त्र (अ० 17) मे लिखल अछि -- 'सप्त स्वराः, त्रीणि स्थानानि (कण्ठ, ह्रदय, मूर्धा), चत्वारो वर्णाः, द्विविधाः काकुः, षडलंकाराः, षडंगानि ' ।
एतेक कहि सरस्वती चलि गेलीह। ओहि समय उशनस् (शुक्र महाराज) कुश आ लकड़ी लेबाक लेल जा रहल छलाह। बच्चाके देखि अपन आश्रममे ल' गेलाह। ओहि ठाम पहुँचि बच्चा बजलाह --
या दुग्धाsपि न दुग्धेव कविदोग्धृभिरन्वहम् ।
हृदि नः सत्रिधत्तां सा सूक्तिधेनुः सरस्वती ।।
अर्थात् 'सुभाषितक धेनु -- जे कविसबसँ दुहल जएबापर सेहओ नहि दुहल जकाँ बनल रहल -- एहन सरस्वतीक हमरा हृदय मे वास करथि'। ओ इ सेहओ कहने छलाह जे एहि श्लोककेँ पढ़ि क' जे पाठ आरम्भ करत से सुमेधा बुद्धिमान हएत। तहिएसँ शुक्रकेँ लोक 'कवि' कह' लगलन्हि। 'कवि' शव्द 'कवृ' धातु सँ बनल अछि --जाहिसँ ओकर अर्थ छैक 'वर्णन केनिहार'। कवि कर्म छैक 'काव्य' । एहि आधारसँ सरस्वतीक पुत्रक नाम 'काव्यपुरुष' प्रसिद्ध भेलन्हि। एतबे मे सरस्वती आपिस एलीह आ पुत्रके नहि देखि दुःखी भ' गेलीह। वाल्मीकि जी ओम्हर सँ अबैत छलाह। ओ बच्चाकेँ शुक्रक आश्रममे जएबाक वृतान्त कहि सुनौलनि। प्रसन्न होइत सरस्वतीजी वाल्मीकिकें छन्दोमयी वाणीक वरदान देलन्हि। जाहि पर दू - टा चिड़ै मे सँ एकटाकें व्याधसँ मारल देखिक' हुनक मुँह सँ इ प्रसिद्ध श्लोक स्वतः निकलि गेलनि --
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ।।
एहि श्लोककेँ सेहओ वरदान देल गेलैक जे किछु आर पढ़बासँ पहिने यदि कियो एहि श्लोककें पढ़त त' ओ कवि हएत। मिथिलामे एखन धरि बच्चा सबकेँ सबसँ पहिने इ श्लोक सिखाओल जाइत छैक। एकरा संग - संग एकटा आरो श्लोक सेहओ सिखाओल जाइत छैक --
सा ते भवतु सुप्रीता देवी शिखरवासिनी ।
उग्रेण तपसा लब्धो यया पशुपतिः पतिः ।।
तखन फेर एहि ' मा निषाद' श्लोकक प्रभाव सँ वाल्मीकि जी रामायण रचलाह आ द्वैपायन जी महाभारत।
एक दिन ब्रम्हाजीक सभामे दू - टा ब्रम्हऋषिमे वेदक प्रसंग शास्त्रार्थ भ' रहल छल ओहिमे त्रिनेत्री होबाक लेल सरस्वतीजीकेँ बजाओल गेल। काव्य - पुरुष सेहओ मायक पाछा विदा भ' गेलाह। माय मना केलखिन - बिना ब्रह्माजीक आज्ञासँ ओहिठाम गेनाइ उचित नहि। एहि पर रुष्ट भ' काव्यपुरुष कतहु आर चलि गेलाह। हुनका जाइत देखि हुनक मित्र कुमार (शिवजीकेँ पुत्र) कानय लगलाह। हुनक माय काव्यपुरुषकेँ लौटेबाक लेल एकटा उपाय सोचलन्हि। प्रेमसँ दृढ़ बन्धन प्राणिक लेल कोनो दोसर नहि, एहन विचार क' ओ 'साहित्यबधू' रूपमे एकटा स्त्रीक सृजन केलन्हि आ ओकरा कहलनि - 'ओ आहा धर्मपति काव्यपुरुष रुसि क' चलल जा रहल छथि -- हुनकर पाछा करू आ लौटा क' लाउ।' ऋषि लोकनि सँ सेहओ कहलनि 'आहाँ सब काव्यपुरूषकेँ स्तुति करैत हिनकर पाछा जाऊ। इ आहाँ सबहक काव्यपुरुष हेताह।
सबगोटा पहिने पूब दिस गेलाह -- जेमहर अंग- बंग- सुम्ह - पुण्ड्र इत्यादि देश छैक। एहि देशमे साहित्यवधू जेहन वेशभूषा धारण केलन्हि ओकरे अनुशरण ओहि देशक स्त्री लोकनि केलीह। जाहि वेषभूषाक वर्णन ऋषि लोकनि एहि शव्दमे केलन्हि --
आर्द्रार्द्रचन्दनकुचार्पितसूत्रहारः
सीमन्तचुम्बिसिचयः स्फुटबाहुमूलः ।
दूर्वाप्रकाण्डरुचिरास्वरूपभोगात्
गौडांङ्गणासु चिरमेष चकास्तु वेषः ।।
[चन्दनचर्चितकुचन पर विलसत सुन्दर हार।
सिरचुम्बी सुन्दर वसन बाहुमूल उघरार ।।

अगुरु लगाये देह में दूर्वा श्यामल रूप ।
शोभित सन्तत हो रही नारी गौड अनूप ।।]

ओहि देशमे जा क' काव्यपुरुष जेहन वेशभूषा धारण केलन्हि ओहिठामक पुरुष सेहओ ओकर अनुकरण केलक। ओहि सब देशमे जेहन भाषा साहित्यवधू बजैत गेली ओहिठाम ओहने बोली बाजल जाए लागल। ओहि बोलचालक रीतीक नाम भेल 'गौडी रीती' -- जाहिमे समास आ अनुप्रासक प्रयोग बेसी होइत अछि। ओहिठाम जे किछु नृत्य गीत आदि सभक कला ओ देखौलनि ओकर नाम भेल 'भारतीवृत्ति' । ओहिठामक प्रवृतिक नाम भेल 'रौद्रभारती।'
ओहिठामसँ सबकियो पाञ्चालक दिस गेलाह। जाहिठाम पाञ्चाल - शूरसेन - हस्तिनापुर - काश्मीर -वाहीक- वाह्लीक इत्यादि देश छैक। ओहिठाम जे वेशभूषा साहित्यवधूक छल ओकर वर्णन ऋषि लोकनि एहि तरहेँ केलाह -
ताटंकवल्गनतरगिंतगण्डलेख -
मानाभिलम्बिदरदोलिततारहारम् ।
आश्रोणिगुल्फपरिमण्डलितोत्तरीयं
वेषं नमस्यत महोदय सुंदरीणाम् ।।
[तडकी चञ्चल झूलती सुंदरगोलकपोल।
नाभिलम्बित हार नित लिपटे वस्त्र अमोल।]
एहि सब देश मे जे नृत्य गीत सभक कला साहित्यवधू देखेलन्हि ओकर नाम 'सात्वतीवृत्ति' आ ओहिठामक बोलचालक नाम भेल 'पांचाली रीति' जाहिमे समासक प्रयोग कम होइत अछि।
ओहिठाम सँ अवन्ति गेलाह। जेमहर अवन्ती - वैदिश - सुराष्ट्र - मालव - अर्बुद - भृगुकच्छ इत्यादि देश छैक। ओहिठामक वृत्तिक नाम भेल 'सात्वकी - कैशिकी'। एहि देशक भेषभूषामे पांचाल आ दक्षिण देशक मिश्रण अछि। अर्थात् एहिठामक स्त्रिलोकनिक वेशभूषा दक्षिण दिसक स्त्री जकाँ --- आ पुरुष लोकनिक पांचलवासी सनक छल। एहिठामक प्रवृतिक नाम 'आवन्ती' भेल।
अवन्ती सँ सब कियो दक्षिण दिस गेलाह -- जाहिठाम मलय - मेकल - कुन्तल - केरल - पालमञ्जर - महराष्ट्र - गंग - कलिंग इत्यादि देश अछि। ओहिठामक स्त्रीक वेषभूषाक वर्णन ऋषि लोकनि एहि तरहेँ केलन्हि –

आमूलतो वलितकुन्तल चारुचूड --
श्चूर्णालकप्रचयलांञ्छितभालभागः।
कक्षानिवेशनिविडीकृतनीविरेष
वेषश्चिरं जयति केरलकामिनीनाम् ।।
[बाँधे केश सुवेश नित बुकनी रंञ्जित भाल ।
नीवी कच्छा में कसी, विलसित दक्षिणबाल ।।]

एहिठामक प्रवृतिक 'दाक्षिणात्य वृत्ति' नाम भेल। साहित्यबधू एहिठाम जाहि नृत्य गीतकलाक उपयोग केलन्हि तकरनाम 'कैशिकी' भेल। बोलचालक रीतिक नाम 'वैदर्भी' भेल जाहिमे अनुप्रास होइत छैक, समास नहि होइत छैक।
'प्रवृति' कहल जाइछ वेषभूषाकेँ, 'वृत्ति' कहल जाइछ नृत्य गीत कला-विलासकेँ - आ 'रीति' कहल जाइछ बोलचालक क्रमकेँ। देश त' अनन्त अछि मुदा एहि चारि विभागसँ सभकेँ विभक्त कएल जाइछ - प्राच्य - पांचाल - अवन्ती --दक्षिणात्य। एहि सभक सामान्य अछि 'चक्र - वर्तिक्षेत्र' जे दक्षिण समुद्रसँ ल' क' उत्तर दिस 1000 योजन (4000 कोस) धरि पसरल अछि। एहि देश मे जेहन वेशभूषा कहल गेल अछि ओहने हेबाक चाहीयैक। एकरे अन्तर्गत एकटा विदर्भ देश छैक जाहि ठाम कामदेवक क्रीड़ास्थल वत्सगुल्म नामक नगर छैक। ओही नगरमे पहुँच क' काव्यपुरुष अपन विवाह साहित्यवधूक संग केलन्हि आ लौट क' हिमालय अएलाह जाहिठाम गौरी आ सरस्वती हिनका लोकनिक प्रतीक्षा करैत छलीह। इ सब वधू आ वरकेँ वर (आशीर्वाद) देलन्हि कि सदैव कवि लोकनिक मानसमे निवास करथि।
इ छल काव्यपुरुषक कथा।

© संजय झा 'नागदह'

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