शिष्य तीन तरहक होइत अछि -- (1) बुद्धिमान् (2) आहार्यबुद्धि (3) दुर्बुद्धि। जे स्वभावसँ बिना ककरो दोसराक सहायताक बिना अभ्यास क' शास्त्र ग्रहण क' सकय ओकरा 'बुद्धिमान' कहल जाइछ। जकरा शास्त्रज्ञान शास्त्रक अभ्याससँ होइत अछि ओकरा 'आहार्यबुद्धि' कहल जाइछ। एहि दुनूक अतिरिक्त 'दुर्बुद्धि' अछि। इ समान्यरूपेँ शिष्यक बिभाग भेल। काव्यशिष्यक विभागक निरूपण कविकण्ठाभरणक मोताबिक आगा भेटत।
बुद्धिमान तीन प्रकारक होइत अछि -- स्मृति, मति, प्रज्ञा। अतीत वस्तुक ज्ञान जाहिसँ होइक ओ भेल 'स्मृति' । वर्तमान वस्तुक ज्ञान जाहिसँ होइक से भेल 'मति' । आ आगामी (भविष्यत्) वस्तुक ज्ञान जाहिसँ होइक से भेल 'प्रज्ञा'। तीनू प्रकारक बुद्धिसँ कवि लोकनिकेँ मददि भेटैत छनि। शिष्यसबहु मे जे 'बुद्धिमान' छथि ओ उपदेश सुनबाक इच्छासँ -- ओकरा सुनैत छथि --- ओकरा ग्रहण करैत छथि -- ओकरा अपनाबैत छथि -- ओकर विज्ञान (विशेष रूपसँ ज्ञानक) सम्पादन करैत छथि -- ऊह (तर्क) करैत छथि -- अपोह (जे बात मोन मे नहि जचैत छनि ओकर परित्याग ) करैत छथि -- तकरा बाद तत्व पर स्थिर भ' जाइत छथि। 'आहार्यबुद्धि' शिष्यक सेहओ एहने व्यवहार होइत छैक। मुदा ओकरा मात्र उपदेष्टाक आवश्यकता नहि छैक -- ओकरा एकटा प्रशास्ताक (शासन केनिहार, हरदम देख-भाल केनिहार ) आवश्यकता रहैत छैक। प्रतिदिन गुरुक उपासना दुनू तरहक शिष्यक प्रकृष्ट गुण समझल जाइत छैक। एह उपासना बुद्धिक विकासमे प्रधान साधन होइत अछि। एहि तत्वज्ञानप्रक्रियाकेँ संग्रह एहि तरहेँ कएल गेल अछि --
(1) प्रथयति पुरः प्रज्ञाजोतिर्यथार्थपरिग्रहे
(2) तदनु जनयत्यूहापोहक्रियाविशदं मनः ।
(3) अभिनिविशते तस्मात् तत्त्वं तदेकमुखोदयं
(4) सह परिचयो विद्यावृद्धैः क्रमादमृतायतै ।।
(1) पहिले अर्थसभक यथावत् ज्ञानक योग्य प्रज्ञा उत्पन्न होइत छैक --
(2) ओकरा बाद ऊहापोह (तर्क - वितर्क) करबाक योग्यता मोनमे उत्पन्न होइत छैक -- (3) तकराबाद एकान्त वस्तुतत्वमात्रमे मन लागि जाइत छैक --- (4) ज्ञानवृद्ध सज्जनक परिचय क्रमेण अमृत भ' जाइत छैक।
'बुद्धिमान' शिष्य तत्व जल्दिये समझि - बुझि लैत अछि। एक बेर सुनि लेला मात्रसँ ओ इ बात समझि लैत अछि। एहन शिष्यके कवि मार्गक (कविक की मार्ग होएबाक चाही तकर) खोजमे गुरुक समीप जएबाक चाही। 'आहार्यबुद्धि' शिष्य एक त' पहिले समझैत नहि अछि -- आ फेर समझएबा पर सेहओ नाना तरहक संशय रहि जाइत छैक। एकरा लेल उचित हेतैक जे ओ अज्ञात वस्तुके जनबाक लेल आ संशय दूर करबा लेल आचार्यक समीप जाए। जे शिष्य 'दुर्बुद्धि' अछि ओ सबतरि उलटे समझत। एकर तुलना कारी कपड़ाक संग कएल गेल अछि -- जाहि पर दोसर रंग नहि चढ़ि सकैत अछि। एहन मनुक्खकेँ यदि ज्ञान भ' सकैत अछि तँ मात्र सरस्वतीक प्रसादें बुझू।
एकर प्रसंग मे एकटा कथा कालिदासक मिथिलामे बड्ड प्रसिद्ध अछि। कालिदास ओहने शिष्यमेसँ छलाह जिनकर परिगणन 'दुर्बुद्धि' क श्रेणी मे होइत छलन्हि। गुरूकुल (गुरुक चौपाड़ी) मे रहैत त' छलाह मुदा बोध एक अक्षरक नहि छलन्हि। केबल खड़िया ल' क' जमीन पर घिसल करथि -- अक्षर एकोटा नहि बननि। मिथिला मे एकटा प्राचीन देवीक मन्दिर उच्चैठ गाँव मे अछि। ओहि ठाम एखन धरि जंगल एहन छैक ( आब पूर्णरूपसँ रचल - बसल गाँव अछि - अनुवादक) । कालिदास जाहिठाम पढ़बा लेल पठाओल गेल छलाह ओ गुरुकूल (चौपाड़ी) एहि मन्दिरकेँ कोस - दू - कोसक आस पासे कतहु छल। एक राति बड्ड अन्हार छल - पाइन खूब बरसि रहल छल। विद्यार्थी सबहुमे शर्त होमए लागल जे यदि कियो एहि भयंकर रातिमे कियो देवीक दर्शन क' आबए त' ओकरा सब मिल क' या त' स्याही (रोसनाइ) या कागज (कागत ) बना देत। [ स्याही बनेबाक प्रक्रिया त' एखनो देहातमे चलैत अछि से त' सबके बुझले हएत। विद्यार्थी सब कागज़ केना बनबैत छल तकर प्रक्रिया आब एखन 30, 40 बरखसँ लोकसब नहि देखने हएत। नेपालमे बाँससँ एक प्रकारक कागज़ बनैत अछि। इ बड्ड पातर होइत छैक -- आ बड्ड मजगूत सेहओ। पातर बेसी होएबाक कारणेँ पुस्तक लिखबा योग्य नहि होइत छैक। तखनो आर सब तरहक कागजी कारवाई एखन धरि नेपाल मे ओहिसँ चलैत छैक। एहि कागजकें पोथी लिखबा योग्य बनेबाक प्रक्रिया एहन छल। बाल्यावस्थामे हमहुँ एहि प्रक्रियामे मददि करैत छलहुँ ताहि हेतु नीक जकाँ स्मरण अछि। चावलक मांड बना क' कागज़ ओहि मे डूबा देल जाइत अछि -- अक्सर मांडमे हरताल छोड़ि दैत अछि -- जाहिसँ कागजक रंग सुन्दर पियर भ' जाइत छैक आ कागज़ मे कीड़ा लगबाक सम्भावना सेहओ काम भ' जाइत छैक। मांड मे कने काल रखलाक बाद कागज़ रौद (धूप) मे पसारल जाइत अछि। नीक जकाँ सुखि जएबा पर कागज़ मोट भ' जाइत छैक मुदा खरखर एतेक रहैत छैक जाहि सँ लिखब असंभव सन भ' जाइत छैक। एकर उपाए कठिन आ परिश्रमसाध्य होइत अछि। एकटा जंगली वस्तु जे कारी सन होइत अछि -- प्रायः कोनो पैघ फलक बीज -- जकरा मिथिलामे 'गेल्ही' कहल जाइछ। पीढ़ी पर कागजकें पसारि क' एहि गेल्ही सँ घण्टों रगड़लासँ कागज़ खूब चिक्कन भ' जाइत छैक। ] कोनो विद्यार्थीकेँ एहि शर्तक स्वीकार करबाक साहस नहि भेल। कालिदास उजड्ड (महामूर्ख) त' छलाहे -- कहलनि हम जाएब। फेर मन्दिर मे गेलाह - एकर प्रमाण की हएत तकर इ निश्चय भेल कि जे कियो जाएत से स्याही ल' क' जाएत आ मन्दिरक देबाल पर अपने हाथक थप्पा (छाप) लगा क' आओत। कालिदास गेलाह। मुदा मन्दिरक अन्दर जएबा पर हुनका इ सन्देह भेलन्हि जे कहीं देबाल पर हाथक थप्पा लगादेब त' कदाचित पाइनक बौछारसँ मेटा ने जाए। एहि डरसँ ओ इ निश्चय केलनि की कियाक नै देवीक मूर्तिक मुँहें मे स्याहीक थप्पा लगा देल जाए त' ठीक रहत। जहिना हाथ बढ़ेला तहिना मूर्ति घुसक' लागल। कालिदास पाछा केलनि। अन्ततोगत्वा देवी प्रत्यक्ष भेलीह आ कहलनि ' तू की चाहैत छैं ?' भगवतीक दर्शनसँ कालिदासक आँखि फुजलनि, आ कहलाह -- ' हमरा विद्या दिअ हम इएह चाहैत छी।' देवी कहलनि -- ' ठीक छै' --- तूं एखन जाक' राइत भरिमे जतेक ग्रन्थ उलटबएं सबटा तोरा याद भ' जएतौक।' कालिदास जा क' विद्यार्थी के त' जे से गुरूजी सबकेँ सेहओ जतेक पोथी छल सबटाके पन्ना - पन्ना उलटि देलनि। आ परम पण्डित भ' गेलाह।
दुर्बुद्धिक लेल अहिं तरहेँ यदि सरस्वतीजीक कृपा होइ त' से छोड़ि आर कोनो उपाय नहि छैक।
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जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
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