रविवार, 3 अगस्त 2025

उड़ैत वंशी -पाठकीय :संजय झा 'नागदह'

 
एखन दिल्लीमे छी। हमरा आब याद अवैत अछि जे मैथिली लिखब आ पढ़ब सँ कदाचित बाल्यहिं काल सँ रुचि रहल अछि। इ पोथी हमरा अपन बाबा आनि देने छलाह। हुनक नौकरी पेशा प्रकाशन क्षेत्रमे रहन्हि, जहिया धरि रोजगारमे रहलाह से प्रकाशनेक क्षेत्रमे। जेना हमरा जनतब अछि रेखा प्रकाशन जकर गेस पेपर इत्यादि चलैत अछि तकर मुख्य सहयोगीमे सँ एक हमर बाबा सेहो रहल छलाह। तकर कारण बाबा हमरा लेल नीक - नीक पोथी सब आनल करथि। एना कहि ओहि समयमे कक्षामे नव पोथी किनब सभक बसक नहि छलैक। प्रायः पहिल कक्षासँ दसम कक्षा धरि बाबा प्रतापे सबसँ पहिने हमरा नव पोथी आबि जाएल करै।
आब अबैत छी पुनः उड़ैत वंशी पर, हमरा जनैत तहिया प्रायः 1989-90 ई. के बात हेतै हम सातवीं कि आठवींमे छल होएब। तहिया एहि पोथीकेँ पढ़ने रही माने हमरा एहन बुझना जाएत अछि जे इ हमर पहिल पढ़ल मैथिली पोथी अछि । मोसकिल सँ 12-13 बरखक उम्र छल होएत तहियो हम पोथीकेँ अंडर लाइन करैत छलहुँ।
किछु अंश जे ओहि समय अंडर लाइन केने छलहुँ....
- मुक्तककार जकाँ गल्पकार सेहो रसक सभ अव्यवकेँ प्रत्क्षरूपसँ नहि परन्तु व्यंजनाक रूपमे व्यक्त करैत अछि।
- मानू मनुष्यक कोनो जघन्य पापसँ क्रुद्ध सूर्यक क्रोधाग्नि समुद्रक वेग जकाँ उमड़ल आबि रहल हो।
- स्वामीक विरहमे प्रतिपल आरती जकाँ जरैत मनोरमा भला ई कोना सोचितथि जे ओ दुर्गादासक स्मृतिसँ ओहिना हटि जाएतीह जेना राति भेलापर सूर्य आकाशसँ विलीन भ' जाइत अछि। ( इ पूरा वाक्य एखन धरि हमर मानस पटलमे पूर्ण स्मरण छल, मुदा इ विसरि गेल रहि जे क' त' पढ़ने रही)
- परंतु जे बहुरिया एतेक दिन धरि झाँपल छलीह से आइ खापरि लेलनि।
- मुदा भौजीक एहि बातपर श्यामाक क्रोध बिला क' नोर भ' गेलनि।
- खिसिआएल बानर जकाँ दाँत किटकिटा रहल छलाह।
- दूरक डाबरामे बैसल बेंग अपन ढोल बजा रहल छल।
- प्रेमक आगू स्त्रीगण माए-बापकेँ किछु क' नहि गुदानैत अछि।
- स्त्रिगणक प्रेमकेँ पानिक बुलबुला जकाँ ने बलबलाइते देरी ने बिलाइते।
- संबंध स्वार्थ पर आधारित रहैत छैक। गरीब संबंधिक पाप ग्रह होइत छैक जकरासँ लोक मुक्त रहए चाहैत अछि। (इ पूरा वाक्य सेहो एखन धरि हमर मानस पटलमे पूर्ण स्मरण छल, मुदा इ विसरि गेल रहि जे क' त' पढ़ने रही)


पोथी: उड़ैत वंशी
लेखक: योगानन्द झा,ग्राम कोइलख, जन्म 28 फरवरी 1922
प्रकाशन: भवानी प्रकाशन, पटना।
मूल्य: 11 टाका
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1984
एहि प्रकाशनक प्रकाशन संख्या -6
पोथीक प्रस्तावना श्री जयदेव मिश्र द्वारा लिखल गेल अछि।

@संजय झा 'नागदह'

सिराउर (मैथिली उपन्यास) - पाठकीय : संजय झा 'नागदह'

'सिराउर' एकटा मैथिली उपन्यास जकर लेखक थिकाह श्री दिलीप कुमार झा जे वस्तुतः उच्छाल (वनमाली टोल) गामक सम्प्रति मधुबनीमे रहि अध्यापन करैत भाषा साहित्यक सेवामे कतेको बरख सं अनवरत लागल छथि। हमरा हिनक पोथी पढ़बाक लालसा एहि कारने भेल जे हिनकर कविता संग्रह 'बनिजाराक देसमे' ताहि लेल यात्री सम्मान, उपन्यास 'दू धाप आगॉ' ताहि लेल डॉ गणपति मिश्र सम्मान प्रदान कएल गेल छन्हि। एहन सम्मानित व्यक्तिक उपन्यास सामने पड़ल तं खरीद क' पढ़ल। अपनाकें एकरा पढ़वा सं वंचित केना रखितहुं।
सच कहु तं उपन्यास लिखब आ ताहुमे मोनलग्गु, रुचिगर आ एहि तरहें जाहिसं पाठककें सेहो किछ नव - पुरान चीज, ओ ज्ञानादिमे बढ़ोतरि भ' सकन्हि सहज नहि थिक।
एहि उपन्यासक मध्य मिथिला क्षेत्रक बहुत रास बात समेटल गेल अछि। युवा वर्गके अपना क्षेत्रमे किछु नव आयाम स्थापित करबाक, एम्हरे रहि नव योजनाक संग रहि आगा बढवाक निश्चित रूप सं प्रेरणा भेंटतन्हि।
चायक दोकानसं प्रारंभ होइत, मिथिला चित्रकला संवर्धन ओ विस्तार, पढ़ि - लिखि अपनहि क्षेत्रमे सामूहिक प्रयास सं वाणिज्यिक विस्तार, समाजकें एकरूप करबाक, सबकें संग योजना बनेबाक, अनाथक नाथ बनि बेटा बना पालन पोषण करबाक, एतेक सुंदर ढंग सं रचने गढ़ने छथि तकर सराहना निश्चित रूपें कएल जेबाक चाही।

अनेक तरहक बातकें बहुत सुंदर ढंग सं परसल गेल अछि जाहि सं दूर भेल मैथिल जन यदि एहि उपन्यासकें पढ़ता तं बड् बात सबकें पुनरास्मरण भ' जेतन्हि। ब्राम्हण सं इतर वियाहक विधि विधान सेहो सब सं पाठक परिचित हेताह। एहि उपन्यासक मध्य प्रेम लीलाक मिठास अति लघु अछि जकरा कने आर नमारला सं पाठककें आर बेसी मनोरंजन होएतन्हि। ओना इ उपन्यासकें इति करबाक लेल प्रेम प्रसंग एकटा सार्थक प्रयास रहल अछि। दिलीप जीकें हृदय सं शुभकामना। तेसर.. चारिम लिखथि आ हम सब पढ़ि। नीक पोथी अछि पाठककें पढ़क चाहियन्हि।
पोथी : सिराउर (मैथिली उपन्यास)
लेखक: दिलीप कुमार झा
प्रकाशक: सिद्धिरस्तु
पोथी खरीदल: मैत्रेयी प्रकाशन क बुराड़ी विद्यापति समारोह कार्यक्रम स्थलक स्टॉल पर।
मूल्य: 200 टाका
कुल पृष्ठ: 160
छपाई : उत्तम

काव्यपुरुषक कथा - कवि रहस्यक अंश

साहित्यक विषयमे एकटा रोचक आ शिक्षाप्रद कथा अछि। पुत्रक कामनासँ सरस्वती जी हिमालय मे तपस्या करैत छलीह। ब्रम्हाजीक वरदानसँ हुनका एकटा पुत्र भेलन्हि - जिनकर नाम 'काव्यपुरुष' भेलनि। (अर्थात् पुरुष रूप मे काव्य) । जनमितहिं ओ पुत्र इ श्लोक पढ़ैत माताकेँ प्रणाम केलन्हि --

यदेतद्वाङ्गमयं विश्वमथ मूर्त्या विवर्तते ।
सोsस्मि काव्यपुमानम्ब पादौ वन्देय तावकौ ।।
अर्थात् -- 'जे वाङ्ग्मयविश्व (शव्दरूपी संसार) मूर्तिधारण क' क' निवर्तमान भ' रहल अछि सैह काव्यपुरुष हम छी। हे माय ! आहाँक चरणकेँ प्रणाम करैत छी'। एहि पद्यके सुनि क' सरस्वती माय प्रसन्न भेलीह आ कहलन्हि -- 'वत्स',एखन धरि विद्वान गद्य टा बजैत अयलाह आइ आहाँ पद्यक उच्चारण केलहुँ। आहाँ बड्ड प्रसंसनीय छी। एखन सँ शव्द - अर्थ - मय आहाँक शरीर अछि -- संस्कृत आहाँक मुँह -- प्राकृत बाँहि -- अपभ्रंश जाँघ --- पैशाचभाषा पैर -- मिश्रभाषा -- वक्षः स्थल -- आत्मा छन्द -- लोम -- प्रश्नोत्तर, पहेली इत्यादि आहाँक खेल -- अनुप्रास उपमा इत्यादि आहाँक गहना भेल'। श्रुति सेहओ एहि मन्त्र मे आहाँक प्रशंसा केलनि --
चत्वारि श्रृंगास्त्रयोsस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्तासोsस्य ।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवो मत्याँ आविवेश ।।
ऋग्वेद 3।8।10।3।
एहि वैदिक मन्त्रके कतेको अर्थ कएल गेल अछि। (1) कुमारिलकृत तंत्रवार्तिक (1। 2। 46) क मोताबिक इ सूर्यक स्तुति अछि। चारि 'श्रृंग' दिनक चारि भाग अछि। तीन 'पाद' तीनटा ऋतु -- शीत, ग्रीष्म, वर्षा। दू 'शीर्ष' दुनू छह छह मासक अयन। सात 'हाथ' सूर्यक सातटा घोड़ा। 'त्रिधाबद्ध' प्रातः मध्यान्ह - साँझ - सवन (तीनू समय सँ सोमरस खींचल जाइत अछि) । 'वृषभ' वृष्टिक मूल कारण प्रवर्तक। 'रोरवीति', मेघक गर्जन। 'महो देव' बड़का देवता -- सूर्य जिनका सबलोक प्रत्यक्ष देवताक रूपमे देखैत छथि। (2) सायणाचार्य एहि तरहेँ अर्थ व्यक्त कएने छथि -- एहिमे यज्ञ रूप अग्निक वर्णन अछि। चारि 'श्रृंग' अछि चारु वेद। तीनटा 'पाद' तीनू सवन प्रातः मध्यान्ह साँझ। दू टा 'शीर्ष' ब्रह्मौदन आ प्रवर्ग्य। सातटा 'हाथ' सातो छन्द। 'त्रिधाबद्ध' मन्त्र - कल्प - ब्राह्मण तीन तरहसँ जकर निबन्धन भेल होएक। 'वृषभ' कर्मफल सभक वर्षण केनिहार। 'रोरवीति' यज्ञानुष्ठानक समयमे मन्त्रादिकपाठ आ सामगानादिक शव्द क' रहल अछि। (3) सायणाचार्य सेहओ एकरा सूर्यकपक्षमे एहि तरहेँ लगौने छथि -- चारिटा 'श्रृंग' अछि चारु दिशा। तीनटा 'पाद' भेल तीनू वेद। दू - टा 'शीर्ष' राति आ दिन। सातटा 'हाथ' सात ऋतु - वसन्तादि छहटा पृथक् - पृथक् आ एकटा सातम 'साधारण'। 'त्रिधाबद्ध' पृथिवी आदिक स्थानमे अग्नि आदिक रूपसँ स्थित - अथवा ग्रीष्म - वर्षा - शीत तीन कालमे बद्ध। 'वृषभ' वृष्टि केनिहार। 'रोरवीति' वर्षाक माध्यमे शव्द करैत अछि। 'महो देव' पैघ देवता। 'मर्त्यान् आविवेश' नियन्ता आत्माक रूपमे समस्त जीवमे प्रवेश केलक। (4) शाव्दिकक मतसँ एहि मन्त्रमे शव्द रूप ब्रम्हक वर्णन अछि -- जकरा विशद रूपमे पतञ्जलि महाभाष्य ( पस्पशाह्रिक पृ० 12 ) मे बतौने छथि। चारि 'श्रृंग' अछि चारु तरहक शव्द - नाम-आख्यात- उपसर्ग -निपात (उद्योतक मतानुसार परा - पश्यन्ति - मध्यमा - वैखरी) । तीन 'पाद' तीनू काल, भूत भविष्यत् वर्तमान। दू टा 'शीर्ष' दू तरहक शव्द -- नित्य - अनित्य अर्थात् व्यंग्य व्यंजक (प्रदीप) । 'सात' हाथ, साथटा विभक्ति। 'त्रिधा बद्ध' ह्रदय - कण्ठ - मूर्धा इ तीनू स्थानमे बद्ध। 'वृषभ' वर्षण केनिहार। 'रोरवीति' शव्द करैत अछि। 'महो देवः' पैघ देव, शव्द ब्रम्ह। मर्त्यान् 'आविवेश' मनुक्ख मे प्रवेश केलक। (5) भरत नाट्यशास्त्र (अ० 17) मे लिखल अछि -- 'सप्त स्वराः, त्रीणि स्थानानि (कण्ठ, ह्रदय, मूर्धा), चत्वारो वर्णाः, द्विविधाः काकुः, षडलंकाराः, षडंगानि ' ।
एतेक कहि सरस्वती चलि गेलीह। ओहि समय उशनस् (शुक्र महाराज) कुश आ लकड़ी लेबाक लेल जा रहल छलाह। बच्चाके देखि अपन आश्रममे ल' गेलाह। ओहि ठाम पहुँचि बच्चा बजलाह --
या दुग्धाsपि न दुग्धेव कविदोग्धृभिरन्वहम् ।
हृदि नः सत्रिधत्तां सा सूक्तिधेनुः सरस्वती ।।
अर्थात् 'सुभाषितक धेनु -- जे कविसबसँ दुहल जएबापर सेहओ नहि दुहल जकाँ बनल रहल -- एहन सरस्वतीक हमरा हृदय मे वास करथि'। ओ इ सेहओ कहने छलाह जे एहि श्लोककेँ पढ़ि क' जे पाठ आरम्भ करत से सुमेधा बुद्धिमान हएत। तहिएसँ शुक्रकेँ लोक 'कवि' कह' लगलन्हि। 'कवि' शव्द 'कवृ' धातु सँ बनल अछि --जाहिसँ ओकर अर्थ छैक 'वर्णन केनिहार'। कवि कर्म छैक 'काव्य' । एहि आधारसँ सरस्वतीक पुत्रक नाम 'काव्यपुरुष' प्रसिद्ध भेलन्हि। एतबे मे सरस्वती आपिस एलीह आ पुत्रके नहि देखि दुःखी भ' गेलीह। वाल्मीकि जी ओम्हर सँ अबैत छलाह। ओ बच्चाकेँ शुक्रक आश्रममे जएबाक वृतान्त कहि सुनौलनि। प्रसन्न होइत सरस्वतीजी वाल्मीकिकें छन्दोमयी वाणीक वरदान देलन्हि। जाहि पर दू - टा चिड़ै मे सँ एकटाकें व्याधसँ मारल देखिक' हुनक मुँह सँ इ प्रसिद्ध श्लोक स्वतः निकलि गेलनि --
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ।।
एहि श्लोककेँ सेहओ वरदान देल गेलैक जे किछु आर पढ़बासँ पहिने यदि कियो एहि श्लोककें पढ़त त' ओ कवि हएत। मिथिलामे एखन धरि बच्चा सबकेँ सबसँ पहिने इ श्लोक सिखाओल जाइत छैक। एकरा संग - संग एकटा आरो श्लोक सेहओ सिखाओल जाइत छैक --
सा ते भवतु सुप्रीता देवी शिखरवासिनी ।
उग्रेण तपसा लब्धो यया पशुपतिः पतिः ।।
तखन फेर एहि ' मा निषाद' श्लोकक प्रभाव सँ वाल्मीकि जी रामायण रचलाह आ द्वैपायन जी महाभारत।
एक दिन ब्रम्हाजीक सभामे दू - टा ब्रम्हऋषिमे वेदक प्रसंग शास्त्रार्थ भ' रहल छल ओहिमे त्रिनेत्री होबाक लेल सरस्वतीजीकेँ बजाओल गेल। काव्य - पुरुष सेहओ मायक पाछा विदा भ' गेलाह। माय मना केलखिन - बिना ब्रह्माजीक आज्ञासँ ओहिठाम गेनाइ उचित नहि। एहि पर रुष्ट भ' काव्यपुरुष कतहु आर चलि गेलाह। हुनका जाइत देखि हुनक मित्र कुमार (शिवजीकेँ पुत्र) कानय लगलाह। हुनक माय काव्यपुरुषकेँ लौटेबाक लेल एकटा उपाय सोचलन्हि। प्रेमसँ दृढ़ बन्धन प्राणिक लेल कोनो दोसर नहि, एहन विचार क' ओ 'साहित्यबधू' रूपमे एकटा स्त्रीक सृजन केलन्हि आ ओकरा कहलनि - 'ओ आहा धर्मपति काव्यपुरुष रुसि क' चलल जा रहल छथि -- हुनकर पाछा करू आ लौटा क' लाउ।' ऋषि लोकनि सँ सेहओ कहलनि 'आहाँ सब काव्यपुरूषकेँ स्तुति करैत हिनकर पाछा जाऊ। इ आहाँ सबहक काव्यपुरुष हेताह।
सबगोटा पहिने पूब दिस गेलाह -- जेमहर अंग- बंग- सुम्ह - पुण्ड्र इत्यादि देश छैक। एहि देशमे साहित्यवधू जेहन वेशभूषा धारण केलन्हि ओकरे अनुशरण ओहि देशक स्त्री लोकनि केलीह। जाहि वेषभूषाक वर्णन ऋषि लोकनि एहि शव्दमे केलन्हि --
आर्द्रार्द्रचन्दनकुचार्पितसूत्रहारः
सीमन्तचुम्बिसिचयः स्फुटबाहुमूलः ।
दूर्वाप्रकाण्डरुचिरास्वरूपभोगात्
गौडांङ्गणासु चिरमेष चकास्तु वेषः ।।
[चन्दनचर्चितकुचन पर विलसत सुन्दर हार।
सिरचुम्बी सुन्दर वसन बाहुमूल उघरार ।।

अगुरु लगाये देह में दूर्वा श्यामल रूप ।
शोभित सन्तत हो रही नारी गौड अनूप ।।]

ओहि देशमे जा क' काव्यपुरुष जेहन वेशभूषा धारण केलन्हि ओहिठामक पुरुष सेहओ ओकर अनुकरण केलक। ओहि सब देशमे जेहन भाषा साहित्यवधू बजैत गेली ओहिठाम ओहने बोली बाजल जाए लागल। ओहि बोलचालक रीतीक नाम भेल 'गौडी रीती' -- जाहिमे समास आ अनुप्रासक प्रयोग बेसी होइत अछि। ओहिठाम जे किछु नृत्य गीत आदि सभक कला ओ देखौलनि ओकर नाम भेल 'भारतीवृत्ति' । ओहिठामक प्रवृतिक नाम भेल 'रौद्रभारती।'
ओहिठामसँ सबकियो पाञ्चालक दिस गेलाह। जाहिठाम पाञ्चाल - शूरसेन - हस्तिनापुर - काश्मीर -वाहीक- वाह्लीक इत्यादि देश छैक। ओहिठाम जे वेशभूषा साहित्यवधूक छल ओकर वर्णन ऋषि लोकनि एहि तरहेँ केलाह -
ताटंकवल्गनतरगिंतगण्डलेख -
मानाभिलम्बिदरदोलिततारहारम् ।
आश्रोणिगुल्फपरिमण्डलितोत्तरीयं
वेषं नमस्यत महोदय सुंदरीणाम् ।।
[तडकी चञ्चल झूलती सुंदरगोलकपोल।
नाभिलम्बित हार नित लिपटे वस्त्र अमोल।]
एहि सब देश मे जे नृत्य गीत सभक कला साहित्यवधू देखेलन्हि ओकर नाम 'सात्वतीवृत्ति' आ ओहिठामक बोलचालक नाम भेल 'पांचाली रीति' जाहिमे समासक प्रयोग कम होइत अछि।
ओहिठाम सँ अवन्ति गेलाह। जेमहर अवन्ती - वैदिश - सुराष्ट्र - मालव - अर्बुद - भृगुकच्छ इत्यादि देश छैक। ओहिठामक वृत्तिक नाम भेल 'सात्वकी - कैशिकी'। एहि देशक भेषभूषामे पांचाल आ दक्षिण देशक मिश्रण अछि। अर्थात् एहिठामक स्त्रिलोकनिक वेशभूषा दक्षिण दिसक स्त्री जकाँ --- आ पुरुष लोकनिक पांचलवासी सनक छल। एहिठामक प्रवृतिक नाम 'आवन्ती' भेल।
अवन्ती सँ सब कियो दक्षिण दिस गेलाह -- जाहिठाम मलय - मेकल - कुन्तल - केरल - पालमञ्जर - महराष्ट्र - गंग - कलिंग इत्यादि देश अछि। ओहिठामक स्त्रीक वेषभूषाक वर्णन ऋषि लोकनि एहि तरहेँ केलन्हि –

आमूलतो वलितकुन्तल चारुचूड --
श्चूर्णालकप्रचयलांञ्छितभालभागः।
कक्षानिवेशनिविडीकृतनीविरेष
वेषश्चिरं जयति केरलकामिनीनाम् ।।
[बाँधे केश सुवेश नित बुकनी रंञ्जित भाल ।
नीवी कच्छा में कसी, विलसित दक्षिणबाल ।।]

एहिठामक प्रवृतिक 'दाक्षिणात्य वृत्ति' नाम भेल। साहित्यबधू एहिठाम जाहि नृत्य गीतकलाक उपयोग केलन्हि तकरनाम 'कैशिकी' भेल। बोलचालक रीतिक नाम 'वैदर्भी' भेल जाहिमे अनुप्रास होइत छैक, समास नहि होइत छैक।
'प्रवृति' कहल जाइछ वेषभूषाकेँ, 'वृत्ति' कहल जाइछ नृत्य गीत कला-विलासकेँ - आ 'रीति' कहल जाइछ बोलचालक क्रमकेँ। देश त' अनन्त अछि मुदा एहि चारि विभागसँ सभकेँ विभक्त कएल जाइछ - प्राच्य - पांचाल - अवन्ती --दक्षिणात्य। एहि सभक सामान्य अछि 'चक्र - वर्तिक्षेत्र' जे दक्षिण समुद्रसँ ल' क' उत्तर दिस 1000 योजन (4000 कोस) धरि पसरल अछि। एहि देश मे जेहन वेशभूषा कहल गेल अछि ओहने हेबाक चाहीयैक। एकरे अन्तर्गत एकटा विदर्भ देश छैक जाहि ठाम कामदेवक क्रीड़ास्थल वत्सगुल्म नामक नगर छैक। ओही नगरमे पहुँच क' काव्यपुरुष अपन विवाह साहित्यवधूक संग केलन्हि आ लौट क' हिमालय अएलाह जाहिठाम गौरी आ सरस्वती हिनका लोकनिक प्रतीक्षा करैत छलीह। इ सब वधू आ वरकेँ वर (आशीर्वाद) देलन्हि कि सदैव कवि लोकनिक मानसमे निवास करथि।
इ छल काव्यपुरुषक कथा।

© संजय झा 'नागदह'

सरस्वतीजीक कृपा होइ त'- कवि रहस्य अंश

शिष्य तीन तरहक होइत अछि -- (1) बुद्धिमान् (2) आहार्यबुद्धि (3) दुर्बुद्धि। जे स्वभावसँ बिना ककरो दोसराक सहायताक बिना अभ्यास क' शास्त्र ग्रहण क' सकय ओकरा 'बुद्धिमान' कहल जाइछ। जकरा शास्त्रज्ञान शास्त्रक अभ्याससँ होइत अछि ओकरा 'आहार्यबुद्धि' कहल जाइछ। एहि दुनूक अतिरिक्त 'दुर्बुद्धि' अछि। इ समान्यरूपेँ शिष्यक बिभाग भेल। काव्यशिष्यक विभागक निरूपण कविकण्ठाभरणक मोताबिक आगा भेटत।

बुद्धिमान तीन प्रकारक होइत अछि -- स्मृति, मति, प्रज्ञा। अतीत वस्तुक ज्ञान जाहिसँ होइक ओ भेल 'स्मृति' । वर्तमान वस्तुक ज्ञान जाहिसँ होइक से भेल 'मति' । आ आगामी (भविष्यत्) वस्तुक ज्ञान जाहिसँ होइक से भेल 'प्रज्ञा'। तीनू प्रकारक बुद्धिसँ कवि लोकनिकेँ मददि भेटैत छनि। शिष्यसबहु मे जे 'बुद्धिमान' छथि ओ उपदेश सुनबाक इच्छासँ -- ओकरा सुनैत छथि --- ओकरा ग्रहण करैत छथि -- ओकरा अपनाबैत छथि -- ओकर विज्ञान (विशेष रूपसँ ज्ञानक) सम्पादन करैत छथि -- ऊह (तर्क) करैत छथि -- अपोह (जे बात मोन मे नहि जचैत छनि ओकर परित्याग ) करैत छथि -- तकरा बाद तत्व पर स्थिर भ' जाइत छथि। 'आहार्यबुद्धि' शिष्यक सेहओ एहने व्यवहार होइत छैक। मुदा ओकरा मात्र उपदेष्टाक आवश्यकता नहि छैक -- ओकरा एकटा प्रशास्ताक (शासन केनिहार, हरदम देख-भाल केनिहार ) आवश्यकता रहैत छैक। प्रतिदिन गुरुक उपासना दुनू तरहक शिष्यक प्रकृष्ट गुण समझल जाइत छैक। एह उपासना बुद्धिक विकासमे प्रधान साधन होइत अछि। एहि तत्वज्ञानप्रक्रियाकेँ संग्रह एहि तरहेँ कएल गेल अछि --
(1) प्रथयति पुरः प्रज्ञाजोतिर्यथार्थपरिग्रहे
(2) तदनु जनयत्यूहापोहक्रियाविशदं मनः ।
(3) अभिनिविशते तस्मात् तत्त्वं तदेकमुखोदयं
(4) सह परिचयो विद्यावृद्धैः क्रमादमृतायतै ।।
(1) पहिले अर्थसभक यथावत् ज्ञानक योग्य प्रज्ञा उत्पन्न होइत छैक --
(2) ओकरा बाद ऊहापोह (तर्क - वितर्क) करबाक योग्यता मोनमे उत्पन्न होइत छैक -- (3) तकराबाद एकान्त वस्तुतत्वमात्रमे मन लागि जाइत छैक --- (4) ज्ञानवृद्ध सज्जनक परिचय क्रमेण अमृत भ' जाइत छैक।
'बुद्धिमान' शिष्य तत्व जल्दिये समझि - बुझि लैत अछि। एक बेर सुनि लेला मात्रसँ ओ इ बात समझि लैत अछि। एहन शिष्यके कवि मार्गक (कविक की मार्ग होएबाक चाही तकर) खोजमे गुरुक समीप जएबाक चाही। 'आहार्यबुद्धि' शिष्य एक त' पहिले समझैत नहि अछि -- आ फेर समझएबा पर सेहओ नाना तरहक संशय रहि जाइत छैक। एकरा लेल उचित हेतैक जे ओ अज्ञात वस्तुके जनबाक लेल आ संशय दूर करबा लेल आचार्यक समीप जाए। जे शिष्य 'दुर्बुद्धि' अछि ओ सबतरि उलटे समझत। एकर तुलना कारी कपड़ाक संग कएल गेल अछि -- जाहि पर दोसर रंग नहि चढ़ि सकैत अछि। एहन मनुक्खकेँ यदि ज्ञान भ' सकैत अछि तँ मात्र सरस्वतीक प्रसादें बुझू।

एकर प्रसंग मे एकटा कथा कालिदासक मिथिलामे बड्ड प्रसिद्ध अछि। कालिदास ओहने शिष्यमेसँ छलाह जिनकर परिगणन 'दुर्बुद्धि' क श्रेणी मे होइत छलन्हि। गुरूकुल (गुरुक चौपाड़ी) मे रहैत त' छलाह मुदा बोध एक अक्षरक नहि छलन्हि। केबल खड़िया ल' क' जमीन पर घिसल करथि -- अक्षर एकोटा नहि बननि। मिथिला मे एकटा प्राचीन देवीक मन्दिर उच्चैठ गाँव मे अछि। ओहि ठाम एखन धरि जंगल एहन छैक ( आब पूर्णरूपसँ रचल - बसल गाँव अछि - अनुवादक) । कालिदास जाहिठाम पढ़बा लेल पठाओल गेल छलाह ओ गुरुकूल (चौपाड़ी) एहि मन्दिरकेँ कोस - दू - कोसक आस पासे कतहु छल। एक राति बड्ड अन्हार छल - पाइन खूब बरसि रहल छल। विद्यार्थी सबहुमे शर्त होमए लागल जे यदि कियो एहि भयंकर रातिमे कियो देवीक दर्शन क' आबए त' ओकरा सब मिल क' या त' स्याही (रोसनाइ) या कागज (कागत ) बना देत। [ स्याही बनेबाक प्रक्रिया त' एखनो देहातमे चलैत अछि से त' सबके बुझले हएत। विद्यार्थी सब कागज़ केना बनबैत छल तकर प्रक्रिया आब एखन 30, 40 बरखसँ लोकसब नहि देखने हएत। नेपालमे बाँससँ एक प्रकारक कागज़ बनैत अछि। इ बड्ड पातर होइत छैक -- आ बड्ड मजगूत सेहओ। पातर बेसी होएबाक कारणेँ पुस्तक लिखबा योग्य नहि होइत छैक। तखनो आर सब तरहक कागजी कारवाई एखन धरि नेपाल मे ओहिसँ चलैत छैक। एहि कागजकें पोथी लिखबा योग्य बनेबाक प्रक्रिया एहन छल। बाल्यावस्थामे हमहुँ एहि प्रक्रियामे मददि करैत छलहुँ ताहि हेतु नीक जकाँ स्मरण अछि। चावलक मांड बना क' कागज़ ओहि मे डूबा देल जाइत अछि -- अक्सर मांडमे हरताल छोड़ि दैत अछि -- जाहिसँ कागजक रंग सुन्दर पियर भ' जाइत छैक आ कागज़ मे कीड़ा लगबाक सम्भावना सेहओ काम भ' जाइत छैक। मांड मे कने काल रखलाक बाद कागज़ रौद (धूप) मे पसारल जाइत अछि। नीक जकाँ सुखि जएबा पर कागज़ मोट भ' जाइत छैक मुदा खरखर एतेक रहैत छैक जाहि सँ लिखब असंभव सन भ' जाइत छैक। एकर उपाए कठिन आ परिश्रमसाध्य होइत अछि। एकटा जंगली वस्तु जे कारी सन होइत अछि -- प्रायः कोनो पैघ फलक बीज -- जकरा मिथिलामे 'गेल्ही' कहल जाइछ। पीढ़ी पर कागजकें पसारि क' एहि गेल्ही सँ घण्टों रगड़लासँ कागज़ खूब चिक्कन भ' जाइत छैक। ] कोनो विद्यार्थीकेँ एहि शर्तक स्वीकार करबाक साहस नहि भेल। कालिदास उजड्ड (महामूर्ख) त' छलाहे -- कहलनि हम जाएब। फेर मन्दिर मे गेलाह - एकर प्रमाण की हएत तकर इ निश्चय भेल कि जे कियो जाएत से स्याही ल' क' जाएत आ मन्दिरक देबाल पर अपने हाथक थप्पा (छाप) लगा क' आओत। कालिदास गेलाह। मुदा मन्दिरक अन्दर जएबा पर हुनका इ सन्देह भेलन्हि जे कहीं देबाल पर हाथक थप्पा लगादेब त' कदाचित पाइनक बौछारसँ मेटा ने जाए। एहि डरसँ ओ इ निश्चय केलनि की कियाक नै देवीक मूर्तिक मुँहें मे स्याहीक थप्पा लगा देल जाए त' ठीक रहत। जहिना हाथ बढ़ेला तहिना मूर्ति घुसक' लागल। कालिदास पाछा केलनि। अन्ततोगत्वा देवी प्रत्यक्ष भेलीह आ कहलनि ' तू की चाहैत छैं ?' भगवतीक दर्शनसँ कालिदासक आँखि फुजलनि, आ कहलाह -- ' हमरा विद्या दिअ हम इएह चाहैत छी।' देवी कहलनि -- ' ठीक छै' --- तूं एखन जाक' राइत भरिमे जतेक ग्रन्थ उलटबएं सबटा तोरा याद भ' जएतौक।' कालिदास जा क' विद्यार्थी के त' जे से गुरूजी सबकेँ सेहओ जतेक पोथी छल सबटाके पन्ना - पन्ना उलटि देलनि। आ परम पण्डित भ' गेलाह।
दुर्बुद्धिक लेल अहिं तरहेँ यदि सरस्वतीजीक कृपा होइ त' से छोड़ि आर कोनो उपाय नहि छैक।


महामहोपाध्याय गंगानाथ झाक “कवि रहस्य’क मैथिली अनुवाद : अश्विनी कुमार तिवारी

एकटा साधारण व्यक्ति द्वारा एकटा असाधारण कृति पर एकटा सार्थक प्रयास कयल गेल। ई काज अचानके सामान्य साधारण व्यक्ति के आगाँ असाधारण व्यक्तित्व मे बदलि देबाक सामर्थ्य रखैत अछि। जाहि व्यक्ति के चर्चा अतय क रहल छी से छैथि हमर सहपाठी श्री संजय झा। संगी छथि, सहपाठी छथि, सेहो हाफ पैंटक जमाना कें तैं कने आवश्यक झुकाव परिलक्षित भ सकैत अछि।
आब एकटा असाधरण व्यक्तित्व के चर्चा करैत छी जिनका मिथिला के कहय सम्पूर्ण भारत मे शायदे कियो हैत जे हिनका नहि जनैत होयत ओ छथि म० महो० उपाध्याय डा० सर गङ्गा नाथ झा। हिनक एक समय मे देल गेल तीन टा व्याख्यान ( १९२८-२९ ) के संकलित कय एकटा हिंदी भाषा मे पोथी आयल जकर नाम छल कवि रहस्य।
आब एकटा तेसर व्यक्तित्व के चर्चा करै छी जे प्रत्यक्ष रूप सँ त अहि पोथी सँ जुड़ल नहि छथि मुदा अहि पोथी ( अनुदित ) मे सर्वत्र विद्यमान छथि आ से छथि मिथिलाक विद्वत धाराक एकटा महत्वपूर्ण स्तम्भ डा० सुभद्र झा। संजय झा हिनके गाम नागदह के छथि आ बचपन मे हिनक नेह छोह प्राप्त कयने छथि।
संजय झा अहि पुस्तक कवि रहस्य के मैथिली अनुवाद कयने छथि। अनुवाद मे जाहि प्राञ्जल मैथिली भाषाक व्यवहार भेल अछि तकर आधारभूत भाव के धार डा० सुभद्र झा सँ आबैत अछि आ संजय जी पूरा प्रयास कयने छथि यथा सम्भव सक्क भरि ओकर निर्वहन करैथ। कतहु कतहु असफल सेहो भेल हेता किएक त समयक प्रभाव भाषा पर पड़ने बिना रहि नहि सकैत अछि।
किताब के अनुवाद पर गप करी त अनुवाद के सार्थकता अही मे अछि जे अनुवादक अपना केँ अपन विचार केँ आ अपन सोच केँ विषय वस्तु सँ अलग राखथि आ जे जेना छै तकरा तहिना एक भाषा सँ दोसर भाषा मे भाषांतरण क दैथ। हमरा जतेक पढ़ि क अनुभव भेल ताहि आधार पर कहि सकै छी जे अनुवादक अपन काज मे काफी हद तक सफल भेल छथि।
विषय वस्तु के चर्चा नहि करब त अहि काजक औचित्य पूरा नहि होयत। ई अनुदित पोथी दू भाग मे बँटल अछि। पहिल भाग काव्य आ कवि के उत्पत्ति स सम्बद्ध अछि आ दोसर भाग कवि चर्या अर्थात कवि कर्म सँ सम्बंधित अछि।
सर गङ्गा नाथ झा अपन व्याख्यान मे वेद पुराण आ विभिन्न संस्कृत ग्रंथक उदाहरणक आश्रय लय काव्य के उत्पत्ति आ विकास के सोझा रखने छथि। कवि के कर्म ओकर ज्ञान ओकर अध्य्यन क्षेत्र ओकर पहिचान चिह्न आदि के विशद व्याख्या कयने छथि आ अकर अनुवाद सेहो संजय जी बहुत नीक सँ होझा ल आयल छथि।
सस्कृत के श्लोक आदि अहि अनुदित पोथी मे अपन मूल रूप मे अछि आ व्याख्या अनुदित मैथिली मे।
आब एकटा महत्वपूर्ण प्रश्न उठैत अछि जे आखिर हिंदी कोनो एहन भाषा त नहि अछि जकरा मैथिली भाषा भाषी जनैथ नहि होथि तहन एहन श्रम साध्य काज करबा आखिर की औचित्य अथवा उद्देश्य। हमरा लगैत अछि अकर दू टा कारण रहल होयत पहिल कि ई पोथी बहुत पुरान अछि आ करीब करीब लुप्त प्राय अछि तैँ अकर उपयोगिता देखैत नव कलेवर मे अकर आयब जरूरी लागल होयतन। आ दोसर जे सर्वाधिक महत्वपूर्ण अछि जकर चर्चा करैत अपन अहि पोथी मे डा० सर गङ्गा नाथ झा स्वीकारय छथिन्ह जे जहन हिंदी मे हुनका सँ व्याख्यान देबय कहल जाइ छन्हि त हुनका लाज होइ छन्हि कारण जे हिंदी हुनक मातृभाषा नहि। हुनक मातृभाषा अछि मैथिली आ संजय झा के सम्पुर्ण पुस्तक केँ मात्र ई एकटा पाँति अकर मैथिली अनुवाद करय लेल विवश क देने हैतैन।
पुस्तक मे नगण्य त्रुटि के प्रयास रहितो किछु अवश्य रहि गेल अछि तथापि संजय झा संगे हुनक प्रकाशन नवारम्भ के अजित जी अकर प्रकाशन मे बहुत मेहनति कयने छथि। पुस्तक के भाषा आ आइ काल्हि जे प्रचलित भाषा अछि ताहि पर दुनू मे बहुत घमर्थन भेल होयतन से लगैत अछि। मुदा अनुवादक भाषा पर सुभद्र झा के प्रभाव बहुत हद तक बाँचल रहि गेल अछि तैं अनुवाद मे मैथिली भाषाक नीक स्वरूप के दर्शन होइत अछि।
एकटा आग्रह कवि लोकनि सँ जे अहि पोथी के अवश्य पढ़ी ताकि काव्य कर्म के औदार्य आ औचित्य समझि सकी। जानि सकी जे कवि के आखिर समाज मे आइओ अतेक प्रतिष्ठा प्राप्त अछि से किए आर की करी जे ई प्रतिष्ठा अक्षुण्ण रहि सकय। जे पाठक छथि से यदि अहि पुस्तक के पढ़ता त हुनक साहित्यिक समझ के परिष्करण निश्चित रूपेण हेतैन।
पोथी : कवि रहस्य ( महामहोपाध्याय सर गङ्गानाथ झा )

अनुवादक : संजय झा ‘नागदह’
प्रकाशक : नवारम्भ प्रकाशन
पृष्ठ संख्या : 104
मूल्य : 200/- टका ( भारतीय )
अहि पोथीक लेल मित्र संजय झा के बहुत बहुत शुभकामना। मैथिलीक लेल अहिना काज करैत रहथु।
-------- अश्विनी कुमार तिवारी ( 03/07/2021 )

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