शनिवार, 16 जनवरी 2016

जकड़ा हूँ - बेड़ियों के बिना

कई वर्षों के बाद
उनको देखा , 
पलक एकाग्र है 
आँखें बाते कर रही है 
जवाँ निःशव्द है 
धड़कन की गति 
शताव्दी एक्सप्रेस 
फिर भी दुरी इतनी 
ना कोई हॉल्ट
ना कोई स्टेशन 
जी करता है 
लपक कर पकड़ लूँ 
मिल लूँ गलें 
और कहूँ
फिर मत जाना प्रिये 
समय बड़ा बईमान है 
पता नहीं 
फिर इस तरह 
आएगा 
की नहीं 
पर 
करूँ क्या 
जकड़ा हूँ 
बेड़ियों के बिना 

----संजय झा "नागदह" १९/०४/२०१५

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